जिसकी दुनिया रोज़ बनती है !

                                                          हर उस आदमी की एक नहीं कई प्रिय पुस्तकें होती हैं, जो किताबों की दुनिया में रहता है। मैं भी किसी हद तक इस दुनिया में रहता हूँ और ऐसी दस किताबें हैं, जिन्हें मैं  `मेरी प्रिय पुस्तक´ कह सकता हूँ। इन दस में पाँच कविता संकलन हैं और इन्हीं में शामिल है आलोक धन्वा का बमुश्किल अस्तित्व में आया संकलन `दुनिया रोज़ बनती है´। किताब के नाम में ही विद्वजन चाहें तो विखंडन और संरचना की अंतहीन बहस निकाल सकते हैं और यूरोपीय साहित्य-दर्शन की शरण भी ले सकते हैं। मेरे लिए तो यह वाकई उसी साधारण दुनिया की एक असाधारण झलक है जो रोज़ बनती है और बनती इसलिए है क्योंकि रोज़ उजड़ती भी है। आलोक धन्वा की यह दुनिया, वही दुनिया है जिसमें हम-आप-सब रहते हैं। हम भी उजड़ते और बनते हैं। आलोक धन्वा हमारे इस उजड़ने और बनने को साथ-साथ देखते हैं। दो विरोधी लेकिन पूरक जीवनक्रियाओं का यह विलक्षण कवि हमारे बीच एक कविता संकलन के साथ उपस्थित है, मेरे लिए यह बड़ी बात है।

आलोक धन्वा के कवि ने जिस दुनिया में आंखें खोलीं, वह मेरे जन्म से पहले की दुनिया थी लेकिन यही वह दुनिया थी जिसकी लगातार बढ़ती हुई गूँज से ही मैं आज अपनी दुनिया की शिनाख्त कर पाता हूँ । नक्सलबाड़ी के उस दौर में आलोक धन्वा बेहद सपाट लेकिन उतने ही प्रभावशाली क्रोध के कवि दिखाई पड़ते हैं। 1972 में लिखी जनता का आदमी हो या गोली दागो पोस्टर – आलोक धन्वा का अपने विचार के प्रति समर्पण ऊपरी तौर से बेहद उग्र और भीतर से काफी सुचिंतित नज़र आता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि 70 के बाद की एक पूरी काव्यपीढ़ी ही उस एक विचार की देन है। आलोक धन्वा इस दुनिया में अपनी आग जैसी रोशन और दहकती उपस्थिति दर्ज कराते हैं। भीतर-भीतर यही सुगबुगाहट किंचित नए रूप में जारी रहती है, जिसकी अभिव्यक्ति `भूखा बच्चा´ और शंख के बाहर´ जैसी छोटे आकार की कविताओं में दिखती है। 1976 में वे एक लम्बी कविता `पतंग´ लेकर आते हैं। यह कविता उसी विचार को ज्यादा सघन या सान्द्र रूप में प्रस्तुत करती है, जिससे आलोक धन्वा ने अपनी यात्रा शुरू की और मुझे पूरा विश्वास है कि इसमें उनकी आस्था अंत तक बनी रहेगी। कविता की शुरूआती पंक्तिया हैं –

उनके रक्त से ही फूटते हैं पतंग के धागे 
और हवा की विशाल धाराओं तक उठते चले जाते हैं
जन्म से ही कपास वे अपने साथ लाते हैं

– इसे बूझना कठिन नहीं कि किन लोगों की बात यहाँ की जा रही है। इस कविता में ही आलोक धन्वा की काव्यभाषा और बिम्बों में बदलाव के कुछ संकेत भी मौजूद हैं –

धूप गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो
या फल की तरह बहुत पास लटक रही हो –
हलचल से भरे नींबू की तरह समय हरदम उनकी जीभ पर
रस छोड़ता रहता है

– यह कविता आँधियों, भादो की सबसे काली रातों, मेघों और बौछारों और इस सबमें शरण्य खोजती डरी हुई चिडियों के ब्योरों मे उतरती हुई अचानक फिर अपनी पुरानी शैली में एक बयान देती है –

चिडियाँ बहुत दिनों तक जीवित रह सकती हैं
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
बच्चे बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं
अगर आप उन्हें मारना बन्द कर दें ……………….बच्चों को मारने वाले शासको
सावधान
एक दिन आपको बर्फ में फेंक दिया जाएगा

– यहाँ आकर पता चलता है कि यह पतंग दरअसल किस दिशा में जा रही है। इसी कविता के तीसरे खंड में फिर भाषा और बिम्बों का वहीं संसार दिखाई देने लगता है, जिससे यह कविता शुरू हुई थी –

सवेरा हुआ
खरगोश की आंखों जैसा लाल सवेरा
शरद आया पुलों को पार करते हुए
अपनी नई चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए

– पूरी कविता में मौसम का बदलना और उसके साथ पतंग उड़ाने वालों का छत के खतरनाक किनारों से गिरकर भी बच जाना और फिर उन बचे हुए पैरों के पास पृथ्वी का तेज़ी से घूमते हुए आना – ये सब उसी जगह की ओर संकेत करते हैं, जहाँ से आम जन का संघर्ष और आलोक धन्वा की कविता जन्म लेती है। यहाँ फर्क भाषा और बिम्बपरक अभिव्यक्ति भर का है – आक्रोश और उसके उपादान वही पुराने हैं। मैं कभी नहीं भूलता लखनऊ दूरदर्शन पर आलोक धन्वा का वह काव्यपाठ, जिसमें वे इसी कविता को इतनी आश्वस्तकारी नाटकीयता के साथ पढ़ते हैं कि सुनने वाला स्तब्ध रह जाता है। शायद यही कारण है कि उस कविता-पाठ में मौजूद चार-पाच बड़े कवियों में से मुझे आज सिर्फ़ आलोक धन्वा का वह दुबला और कठोर चेहरा याद है। अगर मैं कहूँ कि संजय चतुर्वेदी की `भारतभूषण पुरस्कृत -पतंग´ की प्रेरणा भी आलोक धन्वा से ही आयी होगी तो संजय भाई शायद इस बात का बुरा नहीं मानेंगे – यहाँ मैं सिर्फ़ आरंभिक प्रभाव की बात कर रहा हूँ , काव्यात्मक मौलिकता की नहीं।
***
1979 में आलोक धन्वा फिर एक लम्बी कविता के साथ उपस्थित होते हैं। `कपड़े के जूते´ नामक यह कविता `पहल´ में छपी और पहल वो पत्रिका है जिससे आज के कई बड़े कवियों का जन्म हुआ है। मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि वहीं से आलोक धन्वा ने किंचित भिन्न भौगोलिक और सामाजिक परिवेश से आए अरुण कमल, राजेश जोशी, मनमोहन, वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल जैसे अपने कई समानधर्मा युवा साथियों को पहली बार पहचाना होगा। रेल की पटरी के किनारे पड़े कैनवास के सफ़ेद परित्यक्त जूतों के थोड़े बोझिल विवरण के साथ कविता शुरू होती है लेकिन कुछ ही पंक्तियो बाद वह इस दृश्य के साथ अचानक एक बड़ा आकार लेने लगती है –

ज़मीन की सबसे बारीक़ सतह पर तो
वे जूते अंकुर भी रहे हैं

– यहाँ आलोक इन जूतों और उसी सदा चमकते हुए विचार और जोश के साथ अनगिन वंचितों, पीड़ितों और ठुकराए-सताए गए अपने प्रियतर लोगों की दुनिया में एक नई और अनोखी यात्रा आरम्भ कर देते हैं। वे खिलाडियों, सैलानियों की आत्माओं, चूहों, गड़रियों, नावों से लेकर ज़मीन, जानवर और प्रकृति तक के नए-नए अर्थ-सन्दर्भ खोलते हुए कविता को ऐसे उदात्त अन्त तक पहुंचाते हैं –

मृत्यु भी अब उन जूतों को नहीं पहनना चाहेगी
लेकिन कवि उन्हें पहनते हैं
और शताब्दियाँ पार करते हैं।

इस कविता में विचार समेत कई मानवीय भावनाओं का तनाव टूटने की हद तक खिंचता है और फिर एक ऐसे शानदार आत्मकथ्य में बदल जाता है, जो सारे कवियों का आत्मकथ्य हो सकता है।
***
1988 के साथ ही समय बदलता है। आलोक धन्वा की कविता में भी ये बदलाव नज़र आते हैं। यहाँ से ही उनकी कविता स्त्रियों के एक विशाल, जटिल और गरिमामय संसार की ओर मुड़ जाती है। आलोक धन्वा से पहले और उनके साथ भी स्त्रियों पर कई कवि लिखते रहे हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में निराला की सरोज-स्मृति, स्फटिक शिला और वह तोड़ती पत्थर में पहली बार स्त्रियों के प्रति एक विरल काव्य-संवेदना जन्म लेती दिखाई देती है, जिसका विकास नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, चन्द्रकान्त देवताले, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, असद ज़ैदी, विमल कुमार आदि तक कई-कई रूपों में देखने को मिलता है। आलोक धन्वा इस राह के बेहद संवेदनशील और समर्पित राही हैं। उनकी ऐसी कविताओं में ठीक वही गरिमा और सौन्दर्य मौजूद है, जो निराला में था। मुझे लगता है इस परम्परा में अगर पाँच-छह ही नाम लेने पड़ें तो मेरे लिए वो निराला, नागार्जुन, चन्द्रकान्त देवताले, रघुवीर सहाय, आलोक धन्वा और असद ज़ैदी होंगे। आलोक धन्वा की कविता में इस दौर की औपचारिक शुरूआत 1988 के आसपास से होती है। हम देख सकते हैं इस ओर मुड़ने में उन्होंने काफ़ी समय लिया। ऐसा इसलिए क्योंकि निश्चित रूप से वे उस जटिलता को व्यक्त करने के जोखिम जानते हैं, जिसे हम आम हिन्दुस्तानी स्त्री का अन्तर्जगत कहते हैं।

1988 में लिखी भागी हुई लड़किया उनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक है। इसमें आलोक धन्वा ने एक ऐसे संसार को हिन्दी जगत के सामने रखा जो आंखों के सामने रहते हुए भी अब तक लगभग अप्रस्तुत ही था। किसी लड़की के घर से भाग जाने का हमारे औसत भारतीय समाज में क्या आशय है, यह बहुत स्पष्ट बात है। जिस समाज में विशिष्ट सामन्ती परम्पराओं और आस्थाओं के चलते औरत की यौनशुचिता को ही आदमी की इज्जत माना जाता हो, वहाँ बेटी का प्रेम में पड़ना और फिर घर से भाग जाना अचानक आयी किसी दैवीय विपदा से कम नहीं होता। इक्कीसवीं सदी में भी जब पंचायतें ऐसी लड़कियों और प्रेमियों को सरेआम कानून की धज्जिया¡ उड़ाते हुए फांसी पर लटका देती हैं, तब आलोक धन्वा की ये पंक्तियाँ हमें अपने भीतर झाँकने का एक मौका देती हैं –

घर की ज़जीरें
कितना ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं
जब घर से कोई लड़की भागती है

– ये स्त्रीविमर्श से अधिक कुछ है। साहित्यिक विमर्श के आईने में ही देखें तो ये भागी हुई लड़कियां प्रभा खेतान की तरह सम्पन्न नहीं हैं और न ही अनामिका की तरह विलक्षण बुद्धि-प्रतिभा की धनी हैं। ये तो हमारे गली-मोहल्लों की बेहद साधारण लड़कियां हैं। प्रभा खेतान या अनामिका का स्त्रीविमर्श इनके लिए शायद कुछ नहीं कर सकता। इनके दु:ख और यातना दिखा देने में ख़ुद विमर्श की मुक्ति भले ही हो, इन लड़कियों की मुक्ति कहीं नहीं है। उनका घर से भाग जाना महज एक पारिवारिक घटना नहीं, बल्कि एक जानलेवा सामाजिक प्रतिरोध भी है। वे अपने आप को जोखिम डालती हुई अपने बाद की पीढ़ी के लिए सामाजिक बदलाव का इतिहास लिखने की कोशिश करती हैं। ये प्रेम किसी प्रेमी के बजाए उस संसार के प्रति ज्यादा है, जिसमें एक दिन उनकी दुनिया की औरतें खुलकर साँस ले सकेंगी। हमारे सामन्ती समाज को समझाती हुई कितनी अद्भुत समझ है ये कवि की –

तुम्हारे टैंक जैसे बन्द और मजबूत घर से बाहर
लड़कियां काफ़ी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाज़त नहीं दूँगा
कि तुम अब
उनकी सम्भावना की भी तस्करी करो

– आलोक धन्वा की कविता में वे लड़कियां घर से भाग जाती हैं क्योंकि वे जानती हैं कि उनकी अनुपस्थिति दरअसल उनकी उपस्थिति से कहीं अधिक गूंजेगी । वे लड़कियां अपने अस्तित्व की इस गूँज के लिए भागती हैं और तब तक भागती रहेंगी जब तक कि घर और समाज में उनकी उपस्थिति, अनुपस्थिति से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो जाती। ऐसी लड़कियों के सामाजिक बहिष्कार करने या उन्हें जान से मार देने वाली बर्बर पुरुषवादी मानसिकता को पहली बार कविता में इस तरह से एक अत्यन्त मार्मिक किन्तु खुली चुनौती दी गई है –

उसे मिटाओगे
एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे
उसके ही घर की हवा से
उसे वहाँ से भी मिटाओगे
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर
वहाँ से भी
मैं जानता हूँ
कुलीनता की हिंसा !

– यदि आलोक धन्वा की प्रवृत्ति बदलाव के स्वप्न और सामाजिक वास्तविकता के बीच झूलते रहने की ही होती तो वे कभी न लिखते –

लड़की भागती है
जैसे सफ़ेद घोड़े पर सवार
लालच और जुए के आरपार
जर्जर दूल्हों से
कितनी धूल उठती है

– और साथ ही यह भी कि

लड़की भागती है
जैसे फूलों में गुम होती हुई
तारों में गुम होती हुई
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई
खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में

– वे सिर्फ़ लड़की के भागने की बात नहीं कहते बल्कि उसके मूल में मौजूद सामाजिक कारणों को भी स्पष्ट करते हैं। वे जब उसे तैराकी की पोशाक में जगरमगर स्टेडियम में दौड़ते हुए दिखाते हैं तो अपने बर्बर सामन्ती समाज में हावी वर्जनाओं और पाशविकता के अन्तिम द्वार को भी तोड़ देने की एक निजी लेकिन ज़रूरी कोशिश करते हैं। उनकी इस कोशिश में वे कहाँ तक जाते हैं ये भी देखने चीज़ है –

तुम जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रेमिकाओं में !

– मुझे लगता है कि अपनी कविता में इस सच से आँख मिलाने वाला यह विलक्षण कवि अपनी ज़िन्दगी में भी इससे ज़रूर दो-चार हुआ होगा। कविता में भी उसने इस सच को एक गरिमा दी है और कविता में झलकती उसकी आत्मा का यक़ीन करें तो अपने जीवन में भी वह इससे ऐसे ही पेश आयेगा। इस कविता का जो झकझोरने वाला अन्त है, वह तो बिना किसी वास्तविक और जीवन्त अनुभव के आ ही नहीं सकता। इस अन्त में करुणा और शक्ति एक साथ मौजूद हैं। इतना सधा हुआ अन्त कि दूसरी किसी बहुत बड़ी कविता की शुरूआत-सा लगे। जहाँ तक मैं जानता हूँ समकालीन परिदृश्य पर इस भावात्मक लेकिन तार्किक उछाल में आलोक धन्वा की बराबरी करने वाले कवि बहुत कम हैं।
***
1989 में आलोक धन्वा ने बहुत कम पृष्ठों में एक महाकाव्य रचा, जिसे हिन्दी संसार `ब्रूनों की बेटियाँ´ नामक लम्बी कविता के रूप में जानता है। मुक्तिबोध की कुछ लम्बी कविताओं के अलावा मेरे लिए यह किसी कविता के इतना उदात्त हो सकने का एक दुर्लभतम उदाहरण है। एक कवि ख़ुद भी अपने विषय की ही तरह एक दुर्निवार आग में जलता हुआ अनाचार और पाशविकता के विरुद्ध किस तरह प्रतिरोध का एक समूचा संसार खड़ा करता है, इसे जानना हो तो यह कविता पढ़िये और इस सच को भी स्वीकार कर लीजिये कि इसके पहले एकाग्र पाठ के साथ ही आप भी अपने भीतर उतने साबुत नहीं बचेंगे। मैंने वाचस्पति जी (अब काशीवासी) के निजी पुस्तकालय से पहल का एक पुराना अंक निकालकर जब पहली बार इसे पढ़ा, तब शायद मैं 18-19 बरस का था। मुझे नहीं पता था कि इस पत्रिका के उन धूल भरे पीले पन्नों में एक आग छुपी होगी। जैसा कि होना ही था, मैं इस आग में कई दिन जलता रहा। नागार्जुन की हरिजनगाथा मेरी स्मृति में थी लेकिन यह कविता तो जैसे अपने साथ एक खौलता हुआ लावा लेकर बह रही थी, जिससे बचना नामुमकिन था। लेकिन मैं यह भी कहना चाहूँगा कि इस अद्भुत कविता में आलोक धन्वा स्त्रियों के संसार में दाखिल होकर भी एक ख़ास किस्म की वर्ग चेतना से मुक्त नहीं हो पाते –

रानियाँ मिट गईं
जंग लगे टिन जितनी कीमत भी नहीं
रह गई उनकी याद की
रानियाँ मिट गई
लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही औरतें
फ़सल काट रही है

– यहाँ आकर मैं कथ्य के स्तर पर कवि से थोड़ा असहमत हो जाता हूँ । रानियाँ हों कि किसान औरतें – मेरी वर्ग चेतना के हिसाब से वे एक ही श्रेणी में आती हैं। रानी होना उन औरतों की प्रस्थिति मात्र थी, वरना थीं तो वे भी औरतें ही। उतनी ही जकड़ी हुई। मैं यहाँ तर्कजनित इतिहासबोध की बात कर रहा हूँ । कोई कैसे भुला सकता है, जौहर या सती जैसी कलंकित प्रथाओं को। भारतीय इतिहास में उन्हें भी हमेशा जलाया ही गया। इस कविता की औरतें ग़रीब और दलित भी हैं, इसलिए उनके अस्तित्व की अपनी मुश्किलें हैं लेकिन रानियों का यह चलताऊ ज़िक्र इस कविता के अन्त को थोड़ा हल्का बनाता है। बहरहाल मैं इस कविता की अपनी व्याख्या में अधिक नहीं जाना नहीं चाहता क्योंकि फिर वहाँ से लौटना मेरे लिए हर बार और भी मुश्किल होता जाता है। इस कविता ने मुझे आख्यान रचने की एक समझ दी है और परिणाम स्वरूप आज मेरे पास ख़ुद की कुछ लम्बी कविताएँ हैं। जब अग्रज सलाह देते हैं कि लम्बी कविता लिखनी है तो मुक्तिबोध को पढ़ो, तब वे आलोक धन्वा को भूल क्यों जाते हैं? मैं इस इलाक़े में कदम रखते हुए हमेशा ही मुक्तिबोध के अलावा आलोक धन्वा और विष्णु खरे को भी याद रखता हूँ । आज के समय में मेरे लिए ये दोनों ही लम्बे शिल्प के कविगुरू हैं।
***
1992 में लिखी छतों पर लड़कियां मुझे भागी हुई लड़कियों की कविता का आरिम्भक टुकड़ा जैसी लगती है जबकि उसे 4 साल बाद लिखा गया। उसी वर्ष में लिखी चौक कविता मेरे लिए आलोक धन्वा की एक बेमिसाल कविता है, जिसकी शुरूआती पंक्तियाँ न सिर्फ़ काव्यसाधना बल्कि एक अडिग भावसाधना का भी प्रमाण हैं –

उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा
जिन्होंने मुझे चौक पार करना सिखाया !

– ये स्त्रियाँ ग़रीब मेहनकश स्त्रियाँ हैं जो हर सुबह अपनी आजीविका के लिए बरतन मांजने , कपड़े धोने या खाना पकाने जैसे कामों पर जाती हैं। ये भी ब्रूनो की वैसी ही बेटियाँ हैं जो ओस में भीगे अपने आँचल लिए अलसुब्ह काम पर निकल जाती हैं। कवि का स्कूल उनके रास्ते में पड़ता है इसलिए उसकी मां उसे उन्हें उनके हवाले कर देती है। क्या सिर्फ़ स्कूल के रास्ते में पड़ जाने का कारण ही पर्याप्त है? बड़ा कवि वह होता है जिसकी कविता में अनकहा भी मुखर होकर बोले। यहाँ वही अनकहा बोलता है – दरअसल वे स्त्रियाँ भी एक मां हैं। उन ग़रीब स्त्रियों के जिस वैभव की बात कवि कर रहा है, वह यही मातृत्व और विरल मानवीय सम्बन्धों का वैभव है। कई दशक बाद भी चौराहा पार करते कवि को वे स्त्रियाँ याद आती हैं और वह अपना हाथ उनकी ओर बढ़ा देता है। मुझे नहीं लगता कि यह सिर्फ़ अतीत का मोह है। मेरे लिए तो यह वर्तमान से विलुप्त होती कुछ ज़रूरी संवेदनाओं की शिनाख्त है। आलोक धन्वा `शरीर´ नामक तीन पंक्तियों की एक नन्हीं-सी कविता में लिखते हैं –

स्त्रियों ने रचा जिसे युगों में
उतने युगों की रातों में उतने निजी हुए शरीर
आज मैं चला ढूंढने अपने शरीर में

– मैं सोचता हूँ कि इस कविता की तीसरी पंक्ति में आज मैं चला ढूंढने के बाद “उसी निजता को” – ये तीन शब्द शायद छपने से रह गए है। इस तरह ये कविता पहली दृष्टि में एक पहेली-सी लगती है लेकिन इसके बाद छपी हुई और इसी वर्ष में लिखी हुई `एक ज़माने की कविता´ में यह गुत्थी सुलझने लगती है। कविता का शुरूआती बिम्ब ही बेहद प्रभावशाली है, जहाँ डाल पर फलों के पकने और उनसे रोशनी निकलने का एक अनोखा अनुभव हमें बांधता है। ये कौन से फल हैं, पकने पर जिनसे रोशनी निकलती है और यह पेड़ कैसा है? जवाब जल्द ही मिलता है, जब मेघों के घिरने और शाम से पहले ही शाम हो जाने पर बच्चों को पुकारती हुई मां गाँव के बाहर तक आ जाती है। इसके बाद आता है एक निहायत ही घरेलू लेकिन दुनिया भर के कविकौशल पर भारी यह दृश्य –

फ़सल की कटाई के समय
पिता थके-मांदे लौटते
तो मां कितने मीठे कंठ से बात करती

– पिता की थकान और मां की बातों की मिठास के अन्तर्सम्बन्ध का इस तरह कविता में आना दरअसल एक समूचे लोक का अत्यन्त सहज और कोमल किन्तु उतना ही दुर्लभ प्रस्फुटन है। इन तीन पंक्तियों में एक समूची दुनिया समाई है। मैं सोचता हूँ हिन्दी कविता में ऐसी कितनी पंक्तियाँ होंगी ? यह कवि अपनी मां और परिवार के बारे में लिखते हुए कितनी आसानी से दुनिया की सभी मांओं के हृदय तक पहुँच जाता है। ऐसा करने के लिए यह ज़रूरी है कि कवि की आत्मा समूची स्त्री जाति के प्रति एक आत्मीय अनुराग और आदर से भरी हो। इस कविता के अन्त में कवि कहता भी है कि उसने दर्द की आँधियों में भी मां के गाए संझा-गीतों को बचाया है। इन गीतों या इनकी स्मृतियों को सहजते हुए आलोक धन्वा अपने दिल को और साफ़ – और पारदर्शी बना लेते हैं। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब रेल जैसी औपनिवेशिक मशीन को देखकर भी आलोक धन्वा इसी अकेले निष्कर्ष पर पहुँचते हैं –

हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो मां के घर की ओर जाती है

– वे बार-बार मानो सिद्ध करना चाहते हैं कि स्त्री के कई रूपों में सबसे अहम है उसके भीतर की मां ! मां के प्रति यह झुकाव कवि के अपने निजी व्यक्तित्व की ओर भी इशारा करता है। “विस्मय तरबूज़ की तरह” कविता में वे लिखते हैं कि उन्हें सबसे ज्यादा याद हैं वे स्त्रियाँ जिन्होंने बचपन में उन्हें चूमा तो यहाँ भी मातृत्व का वही आग्रह दिखाई देता है। आलोक धन्वा के लिए बिना किसी अतिरेक के समूची सृष्टि ही जैसे मां हो जाती है। दुनिया की इस सबसे बड़ी सर्जक शक्ति का एक गुनगुना एहसास कभी उनका साथ नहीं छोड़ता और इसीलिए उनकी दुनिया रोज़ बनती है ।
***
दुनिया रोज़ बनती है में मौजूद एक कम बड़ी कविता जिलाधीश का ज़िक्र भी मैं ज़रूर करना चाहूँगा , जिसमें आज़ाद भारत के नए कर्णधारों पर बहुत सार्थक और तल्ख़ टिप्पणी दर्ज है। यह मेरी बहुत चहेती कविताओं में से एक है। मैं कल्पना ही कर सकता हूँ कि आलोक धन्वा को यह विषय कैसे सूझा होगा। सचमुच हमारे गली-मुहल्लों में पला-बढ़ा एक लड़का जब सत्ता का औज़ार बनता है तो वह एक ही वक्त में हमसे कितना पास और कितना दूर होता है –

यह ज्यादा भ्रम पैदा कर सकता है
यह ज़्यादा अच्छी तरह हमें आज़ादी से दूर रख सकता है………..
कभी-कभी तो इससे सीखना भी पड़ सकता है

– मुझे जे एन यू में दीक्षित कुछ मित्रों ने बताया है कि आलोक धन्वा उनके बीच बहुत समय रहे हैं। जे एन यू में रहने या वहाँ आने-जाने के दौरान ही उन्होंने इस कविता का पहला सूत्र पकड़ा होगा। एक इतनी स्पष्ट बात पर जैसे आज तक किसी की नज़र ही नहीं थी। सामने मौजूद अदृश्यों पर रोशनी डाल उन्हें इस तरह अचानक पकड़ लेना भी शायद कला का ही एक ऐसा पहलू है, जो विचार के बिना सदा अधूरा ही रहेगा। आलोक धन्वा के यहाँ कला और विचार एकमेक हो जाते हैं। यह पूर्णता किसी भी बड़े और समर्थ कवि के लिए भी स्वप्न की तरह होती है और उतनी ही भ्रामक भी लेकिन आलोक धन्वा में इसका ज़मीनी रूप दिखता है। जहाँ कला बहुत होगी, वहाँ विचार कम होता जायेगा जैसी कोई भी टिप्पणी कभी उन पर लागू नहीं हो सकेगी। आलोक धन्वा की पहचान उनकी लम्बी कविताओं के कारण ज्यादा है, जबकि वे कुछ बेहद कलात्मक छोटी कविताओं के भी कवि हैं। शरद की रातें, सूर्यास्त के आसमान, पक्षी और तारे, सात सौ साल पुराना छन्द, पहली फ़िल्म की रोशनी, क़ीमत आदि ऐसी ही कविताए हैं। इन कविताओं में रोशनी से भरी बेहद हल्की भाषा और कलात्मक कुशलता का जैसा रूप दिखाई पड़ता है, उसे हिन्दी का तथाकथित कलावादी खेमा सात जन्म में भी नहीं पा सकेगा। शमशेर को जिन प्रभावों के कारण कलावादी मानकर मान्यता देने की राजनीति अब तक होती आयी है, आलोक धन्वा को उस ज़मीन पर कोई छू भी नहीं सका है। इस तरह देखूं तो आलोक धन्वा ने शमशेर की परम्परा को उसके सबसे सच्चे रूप में सहेजा है। ग़ौरतलब है कि मेरे दूसरे प्रिय कवि वीरेन डंगवाल के अब तक छपे दोनों संग्रहों में भी शमशेर को समर्पित कवितायेँ हैं लेकिन आलोक धन्वा के संकलन में यह समर्पण अनकहा होने बावजूद अधिक साफ़ दिखाई पड़ता है।
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आलोक धन्वा ने अपनी कविता की शुरूआत बेहद खुरदुरी और ज़मीनी वास्तविकताओं के बयान से की थी और इस किताब में देखें तो वह अपने उत्कर्ष तक आते-आते एक अलग बिम्बजगत और भाषा के साथ दुबारा उसी हक़ीक़त को अधिक प्रभावशाली ढंग से बयान करने लगती है। 1998 में आलोक धन्वा ने “सफ़ेद रात” लिखी। मुझे फिलहाल तो अमरीकी साम्राज्यवाद के विरोध में लिखी गई कोई कविता इसके बराबर क़द की नहीं लगती। मैं इधर अपने मित्र अशोक पांडे की प्रेरणा से इंटरनेट पर कविताओं की खोज में काफ़ी भटकने लगा हूँ – मुझे अब तक किसी और भाषा में भी ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिखा है तो हो सकता है कि यह शायद मेरी खोज की सीमा हो। भारतीय सन्दर्भ में देखें तो क्रान्तिकारियों पर लिखे हज़ारों पृष्ठ भी उतना नहीं समझा पाते जितना आलोक धन्वा की ये तीन पंक्तियाँ समझा देती हैं –

जब भगत सिंह फांसी के तख्ते की ओर बढ़े
तो अहिंसा ही थी
उनका सबसे मुश्किल सरोकार।

सफ़ेद रात का ज़िक्र आते ही मेरा मन थोड़ा पर्सनल होने को करता है। 2003 की मई में यह रानीखेत की एक अंधेरी रात थी। घर में कवि वीरेन डंगवाल और अशोक पांडे मेरे साथ थे। रात गहराती गई और तभी दूर तक फैली घाटियों और पहाड़ों पर तारों-सी टिमटिमाती बत्तियां अचानक गुल हो गईं। तब हमने अपने हिस्से की उस दुनिया में एक पतली-सी मोमबत्ती जलाई और कुछ शुरूआती हँसी -मज़ाक के बाद अचानक वीरेन दा ने इस कविता का पाठ करना शुरू कर दिया। उन्होंने जिस तरह भावावेग में काँपते हुए इसे पढ़ा वह आने वाली पीढ़ियों के सुनने के लिए रिकार्ड करने योग्य था। कविता की एक-एक पंक्ति में मौजूद तनाव उस हिलती हुई थोड़ी-सी पीली रोशनी में मानो आकाशीय बिजली-सा कौंधता और कड़कता था। अशोक और मैं स्तब्ध थे। हमारी पलकें भीग रही थीं। बगदाद की गलियों में सिर पर फिरोजी रुमाल बांधे उस लड़की का ज़िक्र आते-आते हम फूट ही पड़े। हमारा ये भीतरी रूदन शायद हमारे निजी दु:खों से उपजा हो पर वह बर्बरों द्वारा लगातार उजाड़े जा रहे इस संसार की प्राचीनतम सभ्यताओं में हमारी ताक़तवर और मानवीय उपस्थिति का भी पता देता था। मैंने इसे आंशिक रूप से एक कविता में भी लिखा है, जो पिछले दिनों आए विपाशा के कवितांक में दर्ज़ है।
***
मेरे लिए दुनिया रोज़ बनती है की  कविताओं का कवि भी इस महादेश के जीवन और जनता के कुछ बेहद सच्चे और खरे अनुभवों का एक बड़ा कवि है, जिसे मैं अब तक पढ़ी विश्वकविता के साथ रखकर देखता हूँ तो तब भी वह वहीं दिखाई देता है, क्योंकि उसके पास अपनी ज़मीन है और बक़ौल कवि चन्द्रकांत देवताले एक कवि के पास उसके ज़मीर और ज़मीन का होना ही उसकी सबसे बड़ी पूँजी है। इस अर्थ में आलोक धन्वा की समृद्धता किसी के भी लिए स्पृहणीय हो सकती है।

(यह आलेख आशय 2009 में छपा है….और कवि का स्केच कम्प्यूटर की मदद से मैंने ही तैयार किया है.)

***

9 Comments »

  1. 1

    Shirish,
    Baaki sab theek, par as far as the issue of women freedom are concerned i will stay on side of Prabha Khetaan and will not accept Alok Dhanwaa in that Domain. It is also a issue of preaching and practice. I believe on that front Prabha is more honest than Alok.

  2. 2
    कुमार मुकुल Says:

    आलोक मेरे सबसे प्रिय कवि हैं उस पीढी के, अच्‍छा लिखा है उनपर आपने,मैंने जब किताब आयी थी तब लिखा था उनपर जो तब बहुमत में आया था, आलोक जी का स्‍केच आपने अच्‍छा बनाया है

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    Pankaj Parashar Says:

    आपका यह लेख इंटरनेट के संसार में आने के कारण उपलब्ध हो गया. वरना तो आशय पत्रिका पाने की जद्दोजहद में ही सारा उत्साह काफूर हो जाता.

    आलोकधन्वा की कविताओं पर आपका यह परिचयात्मक लेख अच्छा है. पर आपसे हमें इससे कहीं ज्यादा की उम्मीद थी. लेख में जैसे ही आप किसी कविता विशेष की चर्चा शुरू करते हैं तो मेरे जैसा व्यक्ति यह उम्मीद करता है कि आप कविता में गहरे पैठेंगे और कुछ नया विश्लेषण सामने आएगा, मगर न जाने क्यों कविता में बहुत गहरे उतरने से एक सायास परहेज जैसी कोशिश दिखाई देती है.

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    @ कुमार मुकुल – धन्यवाद भाई साब. आपकी और आलोक जी की एक बढ़िया फोटो मैंने शायद आपके ब्लॉग पर ही देखी है. आलोक जी ने जो आपके बारे में कहा, वो भी पढ़ा है. यूं ही संवाद बनाये रखियेगा.

    @स्वप्नदर्शी- आपने स्त्री विमर्श का मसाले पर अपनी राय दी, शुक्रिया. इतना ही कहूँगा कि सबकी अपनी अपनी राय होती है और होनी ही चाहिए. मेरी राय आलोक जी की कविताओं से बनी है, मेरा उनसे परिचय है पर उनकी निजी ज़िन्दगी के बारे में अधिक जानने का दावा नहीं कर सकता. कथनी मैं जानता हूँ और करनी भी किसी हद तक. आपकी राय ज़रूर असीमा(क्रांति) भट्ट का संस्मरण पढ़ा कर बनी होगी. मैं कहूँगा कि वैसी कविताएँ कभी झूट नहीं बोलती, जैसी आलोक जी ने स्त्रियों पर लिखी हैं और कोई झूट कहे तो तुरत कविता में ही पकड़ा जाता है.

    @ पंकज पराशर – आपने सही कहा पंकज. मैं विस्तार में नहीं जा पाया. दरअसल आलोक जी की हर लम्बी कविता एक अलग लेख की मांग करती है. आगे कभी इस तरह की एक लेखमाला शुरू करने का इरादा है, जिसमें आलोक जी के अलावा देवताले जी, खरे जी और वीरेन जी की कविताएँ भी होंगी. मेरे हक में दुआ कीजिये.

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    रंगनाथ सिंह Says:

    आलोकधन्वा हिन्दी कविता में एक परिघटना बन चुके हैं। ऐसे लोगों का हर पाठ काव्य-संसार को समृद्ध करता है। आप ने उनकी जो व्याख्या की है वो एक कवि के बारे में दूसरे कवि के विचार के रूप में महत्वपूर्ण हैं। आप के लेख में समकालीन लेखकों की लाक्षणिक प्रवृत्तियां भी काफी स्पष्टता से दृष्टीगोचर हो रही हैं। जो कि वर्तमान दौर की पहचान बनती जा रही है।

  6. शुरुआत शिकायत से — कि इस ब्लाग से पहले परिचय क्यूं नहीं कराया?

    आलोक धन्वा मेरे प्रिय कवियों में से हैं — यह कहना उस भावना के शतांश की व्याख्या भी नहीं कर सकता जो मेरे मन में उनके लिये है। वह पाश, विकल और गोरख जैसे उन कवियों में हैं जिनके जैसी कवितायें लिखने के लोभ में मैने पन्ने काले करने शुरु किये। आपने समीक्षा संयत की है…जो आलोक जैसे कवि को व्याखायित करने के लिये शायद काफ़ी नहीं है। फिर भी उनके भावलोक का दरवाज़ा तो खुलता ही है।

    असीमा वाला आलेख पढकर मै भी व्यथित हुआ था…लेकिन अब जो जानकारियां मेरे पास हैं उनके आधार पर कह सकता हूं कि वह अगर सच भी है तो एकांगी। फिर भी जितना सच है वह कम भयावह नहीं। मै आलोक को 15 साल पहले लिखी चीज़ों के लिये जानता हूं और उतना ही उनके सम्मान के लिये काफी है।

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    शिरीष कविता और कवि के लिए, कलाकार के लिए, ये सवाल हमेशा मायने रखेंगे की क्या कविता सिर्फ लिखने के लिए है? या अंतर्मन का संस्कार उससे जुड़ा है की नहीं? अगर जुड़ा है तो जीवन और विचार के बीच की खाईयों को देखते हुए, उम्मीद की रोशनी कहाँ बचती है?

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    Dhiresh Says:

    ye to apka bahut achha lekh hai.


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