दो कविताएँ
नींद की गोली
न जाने किस पदार्थ
किस रसायन
और किस विश्वास के साथ बनी है ये
कि इसे खाने पर
कुछ ही देर बाद
सफ़ेद जलहीन बादलों की तरह झूटा दिलासा लिए
तैरती आती है नींद
लेकिन जारी रहता है दुनिया का सुनाई पड़ना
आसपास होती हरक़तों का महसूस होना जारी रहता है
वह शायद नींद नहीं
नींद का विचार होता है
जो आता है
बरसों-बरस पीछा करता हुआ जीवन के पहले
चलचित्र की तरह
गुज़रे वक़्तों के श्वेत-श्याम दृश्यों
चरित्रों
और ग़ुबार से भरा
मेरे नन्हे बेटे के हाथ मुझे टटोलते हैं
वह पुकारता है पूरी ताक़त से
मेरी इस उचाट नींद में अपना मुंह डाल
पर मैं उसे जवाब नहीं दे पाता
मेरे चेहरे पर जमने लगती है
उसके होने की
बेहद सुखद
गुनगुनी
और नमकीन भाप
राह चलते
मुझे बुलाता है कोई
बार-बार
वह मेरी पत्नी है शायद
खड़ी
शादी से पहले की बारह बरस पुरानी एक सड़क पर
और हमारे बीच से
गुज़रती जाती है गाड़ियां
बेशुमार
मैं उस ओर अपने क़दम उठाना चाहता हूँ
पर उठा नहीं पाता
मैं हाथ हिलाना और जताना चाहता हूँ
अपना वजूद
खड़ा
बारह बरस बाद की वैसी ही एक दूसरी सड़क पर
इस पार
पर जता नहीं पाता
ये कैसी दवा है कमबख़्त
नींद की
कि मैं जगाना चाहता हूँ मुझे
तो जगा नहीं पाता
सो भी नहीं पाता
मगर
बन्द पलकों के नीचे इतनी हलचलों से भरी
अपनी ईजाद की हुई ये
सबसे नई
जागती हुई नींद!
2007
***
एकालाप
तुम भूलने लगे हो
कि कितने लोगों चीज़ों और हलचलों से भरी है दुनिया
उम्र अभी चौंतीस ही है तुम्हारी
बावजूद इसके तुम व्यस्त रहने लगे हो अक्सर
किसी खुफ़िया एकालाप में
लगता है तुम दुनिया में नहीं
किसी रंगमंच पर हो
और कुछ ही देर में शुरू होने वाला है तुम्हारा अभिनय
जिसमें कोई दूसरा पात्र नहीं है
और न ही ज़्यादा संवाद
पता नहीं अपनी उस विशिष्ट अकुलाहट भरी भारी भरभराती आवाज़ में
त्रासदी अदा करोगे तुम या करोगे कोई प्रहसन
तुम्हारे भीतर एक जाल है
धमनियों और शिराओं का
और वे भी अब भूलने लगी हैं तुम्हारे दिमाग तक रक्त पहुंचाना
इसलिए तुम कभी बेहद उत्तेजित
तो कभी गहरे अवसाद में रहते हो
तुम भूल गए हो कि कितना वेतन मिलता है तुम्हें
और उसके बदले कितना किया जाना चाहिए काम
तुम्हें लगता है वापस लौट गए हो
बारह बरस पहले की अपनी उसी गर्म और उमस भरी उर्वर दुनिया में
जहाँ कभी इस छोर से उस छोर तक
नौकरी खोजते भटका करते थे तुम
सपने में दिखती छायाओं -से
अब तुम्हें दिखने लगे हैं अपने जन
किसी तरह रोटी कमाते
काम पर जाते
भीतर ही भीतर रोते- सुलगते
किसी बड़े समर की तैयारी में जीवन की कई छोटी-छोटी लड़ाईयां हार जाते
वे अपने जन जिनसे
तुम दूर होते जा रहे थे
लफ्ज़-दर-लफ्ज़
कहो कैसे हो शिरीष अब तो कहो ?
जबकि भूला हुआ है वह सभी कुछ जिसे तुम भूल जाना चाहते थे
अपने होशो -हवास में
अब अगर तुम अपने भीतर के द्वार खटखटाओ
तो तुम्हें सुनाई देगी
सबसे बुरे समय की मुसलसल पास आती पदचाप
अब तुम्हारा बोलना
कहीं ज़्यादा अर्थपूर्ण और
मंतव्यों भरा होगा !
2007
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