पहाड़

मैं जब भी
उनके बारे में सोचता हूँ
चले आते हैं
एक के बाद एक
छोटे-बड़े
कई सारे पहाड़
और खड़े हो जाते हैं
मेरी देह और आत्मा के
अँधेरे सूंसाट में

मेरे भीतर
देर तक वे खड़े रहते हैं
चुपचाप
मैं उन्हें देखता हूँ
और
मेरी चढ़ाई चढ़ती सांसों के
उत्तप्त वलय
उनसे मिलते हैं

वे थोड़ा सा हिलते हैं और हो जाते हैं
ख़ामोश
उन्हीं पर खड़े हो कर
कभी कभार
मैं अपने आसपास पुकार दिया करता हूँ
मेरी ज़िन्दगी में शामिल
कोई नाम

मैं चाहता हूँ
मेरे भीतर बढ़ता रहे
उनका क़द
उर्वर होते रहे
उनके ढलान
जंगल घने और ज़मीन
ठोस होती रहे

उनकी चट्टानें
पकती रहें मेरे रक्त की
आंच में

मैं सोचता हूँ
तो मेरे अतीत का
और मेरे भविष्य का
एक एक
दिन बोलता है

मैं बदल जाना चाहता हूँ
ख़ुद एक पहाड़ में.
***
रचनाकाल -1995

3 Comments »

  1. 1
    pragya Says:

    kya hi sunder likh diya aapne pahaad ke liye !

  2. 2
    sanjay Says:

    pattharon se jazbat hasil krne wale kaun ho tum.. pahadon pe marne wale..
    kya khoob sajavat di hai labon se inko.. itni gehraiyon se dekhte ho pahadon ko kaun ho tum sapno wale..

  3. ओह्ह्ह….क्या रचना है……….में बदल जाना चाहता हूँ खुद एक पहाड़ में…
    इतनी गहराई से पहाड़ को कवि के भीतर डूबते उतराते देखना दुर्लभ है….
    मेरे भीतर बढ़ता रहे उनका कद…ओह्ह लाजवाब..


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